संपादक चतुर्भुजा पाण्डेय की कलम से…
हिन्द सागर, मुंबई। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का संदेश साफ है कि इस बार मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट को परास्त करना है। सोमवार को एक दिन की मुंबई यात्रा के दौरान उद्धव ठाकरे को लेकर अमित शाह के तेवर तीखे थे।
उन्होंने साफ कहा कि ‘उद्धव को उनकी जगह दिखाने का समय आ गया है। उद्धव ठाकरे के नेतृत्ववाली शिवसेना अपने कर्मों के कारण छोटी हुई है, क्योंकि उन्होंने जनादेश का अपमान किया था और अपनी विचारधारा से हट गए थे। मैं दोहराना चाहता हूं कि मैंने कभी भी उद्धव ठाकरे के साथ मुख्यमंत्री का पद साझा करने का वायदा नहीं किया था। उन्होंने (उद्धव ने) 2019 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के देवेंद्र फडणवीस के नाम पर वोट मांगने के बावजूद शरद पवार के नेतृत्ववाली राकांपा और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने के लिए हर चीज से समझौता किया। राजनीति में जो लोग धोखा देते हैं, उन्हें सजा देनी ही चाहिए।’
दरअसल अमित शाह के ये तीखे तेवर पिछले तीन साल से उन पर लगाए जा रहे आरोपों का परिणाम हैं। शिवसेना के नेता, खासतौर से खुद उद्धव ठाकरे और उनके भरोसेमंद सिपहसालार संजय राउत बार-बार यह आरोप लगाते आ रहे हैं कि ‘2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अमित शाह ने सत्ता में ‘फिफ्टी-फिफ्टी शेयरिंग’ का वादा किया था और उनके इस वादे से मुकरने के बाद हमने राकांपा और कांग्रेस के साथ जाना तय किया।’ शिवसेना के इस आरोप पर शाह ने लंबे समय तक सफाई देने की जरूरत नहीं समझी। शायद वह सही अवसर का इंतजार कर रहे थे। राजनीति में सही अवसर पर सही कदम उठाने का अपना महत्व होता है। इस प्रकरण में सही अवसर संभवतः अब आ गया है।
यह सर्वविदित है कि शिवसेना को राज्य की सत्ता से ज्यादा प्यारी मुंबई की सत्ता है। मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) में शिवसेना 30 साल से सत्ता में है। उसे बीएमसी की सत्ता से हटाकर ही उसपर असली चोट की जा सकती है। अब शाह खुद पर लगे वादाखिलाफी के आरोपों का जवाब शिवसेना के मर्म पर चोट करके ही देना चाहते हैं। यानी शाह ने ठान लिया है कि इस बार शिवसेना को उसके घरेलू मैदान यानी बीएमसी से बेदखल करके ही रहना है।
भाजपा शिवसेना के बीच करीब 35 साल पहले श्री राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान गठबंधन की शुरुआत हुई थी। यानी यह गठबंधन हिंदुत्व की भावभूमि पर हुआ था। शरद पवार की राकांपा तो तब थी ही नहीं। कांग्रेस इस भावभूमि से न सिर्फ कोसों दूर थी, बल्कि इसकी विरोधी थी। आज भी उसकी भूमिका बदली नहीं है, लेकिन 2019 में शिवसेना अपनी भूमिका बदलकर उसके पाले में जा मिली। शिवसेना में यह बदलाव सिर्फ मुख्यमंत्री पद के लिए आया। कांग्रेस-राकांपा को तो 2019 में दूर-दूर तक सत्ता की उम्मीद थी ही नहीं। इसलिए जब उन्हें मुख्यमंत्री पद विहीन सत्ता मिलती दिखाई दी तो वे ढाई क्या, पूरे पांच साल के लिए शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने को तैयार हो गए।
वास्तव में उद्धव ठाकरे इस सत्ता के तात्कालिक लाभ के पीछे छुपे नुकसान का आकलन नहीं कर पाए। इसके लिए जो जाल उनके भरोसेमंद सिपहसालार संजय राउत ने राकांपा अध्यक्ष शरद पवार के साथ मिलकर तैयार किया था, वह तो बस उसमें फंसते चले गए। उन्हें मुख्यमंत्री पद मिला भी, लेकिन जो साख और सम्मान उनके पिता बालासाहब ठाकरे ने मनोहर जोशी और नारायण राणे को मुख्यमंत्री पद सौंपकर अर्जित किया था, उद्धव न सिर्फ उससे वंचित रह गए, बल्कि अपनी पार्टी का भी एक बड़ा हिस्सा गंवा बैठे।
विधानसभा और लोकसभा में शिवसेना के दो तिहाई सदस्य अब पाला बदलकर अपना नया नेता चुन चुके हैं और खुद को ही असली शिवसेना भी कहने लगे हैं। संगठन और चुनाव चिह्न पर भी कब्जे की लड़ाई चुनाव आयोग में चल रही है। इस लड़ाई का ऊंट किस करवट बैठेगा, कहा नहीं जा सकता, पर शिवसेना में इतनी बड़ी बगावत की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता था। यह चरितार्थ हो सकी तो सिर्फ इसलिए, क्योंकि उद्धव ठाकरे ने अपनी वैचारिक जमापूंजी को ही शरद पवार एवं सोनिया गांधी के यहां गिरवी रख दिया।
कुछ ही दिनों पहले उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई राज ठाकरे ने एक चर्चा के दौरान बताया की यह बात स्पष्ट की कि भाजपा और शिवसेना के बीच ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पद का फार्मूला कभी तय ही नहीं हुआ था। जाहिर है, राज ठाकरे उस समय से शिवसेना में सक्रिय रहे हैं, जब उद्धव ठाकरे अपना फोटोग्राफी का शौक पूरा करने में व्यस्त रहा करते थे। राज ऐसी कई बैठकों में भी शामिल रहे हैं, जिनमें भाजपा-शिवसेना के नेताओं ने बैठकर दोनों दलों के बीच गठबंधन का फार्मूला तय किया था।
तब यही तय हुआ था कि राज्य की राजनीति में शिवसेना अधिक सीटों पर चुनाव लड़ेगी और भाजपा कम। इसके बाद जिसकी सीटें अधिक आएंगी, उसका मुख्यमंत्री बनेगा। इसी शर्त के आधार पर 1995 में शिवसेना का मुख्यमंत्री बना था और 1999 में गोपीनाथ मुंडे द्वारा ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री पद की जिद पकड़ लेने के कारण ही शिवसेना-भाजपा की सरकार नहीं बन सकी थी।
इस पुरानी शर्त को भूलकर 2019 में शिवसेना का नया राग अलापना भाजपा नेतृत्व को पसंद न आया, न शिवसेना के उन ज्यादातर विधायकों-सांसदों को, जो कांग्रेस-राकांपा से वर्षों से लड़ते आ रहे थे। शिवसेना में असंतोष पनपने का यही कारण बना और बगावत हुई। अब अमित शाह इसी बगावत की बुनियाद पर शिवसेना को उसी के मैदान में पटखनी देने का मन बना चुके हैं। देखते हैं उद्धव इस चुनौती से पार पाते हैं कि नहीं।