भारतीय संविधान में नागरिकों को प्राप्त अधिकार

भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित मूल अधिकार प्राप्त हैं:

  1. समता या समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24)
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28)
  5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30)
  6. संवैधानिक अधिकार (अनुच्छेद 32)

1. समता या समानता का अधिकार:

अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समता- इसका अर्थ यह है कि राज्य सही व्यक्तियों के लिए एक समान कानून बनाएगा तथा उन पर एक समान ढंग से उन्‍हें लागू करेगा.
अनुच्छेद 15: धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेद-भाव का निषेद- राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग एवं जन्म-स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जाएगा.
अनुच्छेद 16: लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता- राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी. अपवाद- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग.
अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का अंत- अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए इससे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है.
अनुच्छेद 18: उपाधियों का अंत- सेना या विधा संबंधी सम्मान के सिवाए अन्य कोई भी उपाधि राज्य द्वारा प्रदान नहीं की जाएगी. भारत का कोई नागरिक किसी अन्य देश से बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है.

  1. स्वतंत्रता का अधिकार:
    अनुच्छेद 19- मूल संविधान में 7 तरह की स्वतंत्रता का उल्लेख था, अब सिर्फ 6 हैं:
    19 (a) बोलने की स्वतंत्रता.
    19 (b) शांतिपूर्वक बिना हथियारों के एकत्रित होने और सभा करने की स्वतंत्रता.
    19 (c) संघ बनाने की स्वतंत्रता.
    19 (d) देश के किसी भी क्षेत्र में आवागमन की स्वतंत्रता.
    19 (e) देश के किसी भी क्षेत्र में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता.
    19 (f) संपत्ति का अधिकार.
    19 (g) कोई भी व्यापार एवं जीविका चलाने की स्वतंत्रता.
    नोट: प्रेस की स्वतंत्रता का वर्णन अनुच्छेद 19 (a) में ही है.
    अनुच्छेद 20- अपराधों के लिए दोष-सिद्धि के संबंध में संरक्षण- इसके तहत तीन प्रकार की स्वतंत्रता का वर्णन है:
    (a) किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए सिर्फ एक बार सजा मिलेगी.
    (b) अपराध करने के समय जो कानून है इसी के तहत सजा मिलेगी न कि पहले और और बाद में बनने वाले कानून के तहत.
    (c) किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध न्यायालय में गवाही देने के लिय बाध्य नहीं किया जाएगा.
    अनुच्छेद 21- प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का सरंक्षण: किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रकिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है.
    अनुच्छेद 21(क) राज्य 6 से 14 वर्ष के आयु के समस्त बच्चों को ऐसे ढंग से जैसा कि राज्य, विधि द्वारा अवधारित करें, निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा. ( 86वां संशोधन 2002 के द्वारा).
    अनुच्छेद 22- कुछ दशाओं में गिरफ़्तारी और निरोध में संरक्षण: अगर किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया गया हो, तो उसे तीन प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गई है:
    (1) हिरासत में लेने का कारण बताना होगा.
    (2) 24 घंटे के अंदर (आने जाने के समय को छोड़कर) उसे दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया जाएगा.
    (3) उसे अपने पसंद के वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा.

निवारक निरोध: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड- 3, 4 ,5 तथा 6 में तत्संबंधी प्रावधानों का उल्लेख है. निवारक निरोध कानून के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व ही गिरफ्तार किया जाता है. निवारक निरोध का उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए दंड देना नहीं, बल्कि उसे अपराध करने से रोकना है. वस्तुतः यह निवारक निरोध राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाए रखने या भारत संबंधी कारणों से हो सकता है. जब किसी व्यक्ति निवारक निरोध की किसी विधि के अधीन गिरफ्तार किया जाता है, तब:
(a) सरकार ऐसे व्यक्ति को केवल 3 महीने तक जेल में रख सकती है. अगर गिरफ्तार व्यक्ति को तीन महीने से अधिक समय के लिए जेल में रखना हो, तो इसके लिए सलाहकार बोर्ड का प्रतिवेदन प्राप्त करना पड़ता है.
(b) इस प्रकार निरुद्ध व्यक्ति को यथाशीघ्र निरोध के आधार पर सूचित किए जाएगा, लेकिन जिन तथ्यों को निरस्त करना लोकहित के विरुद्ध समझा जाएगा उन्हें प्रकट करना आवश्यक नहीं है.
(c) निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र अवसर दिया जाना चाहिए.

निवारक निरोध से संबंधित अब तक बनाई गई विधियां:

1) निवारक निरोध अधिनियम, 1950: भारत की संसद ने 26 फरवरी, 1950 को पहला निवारक निरोध अधिनियम पारित किया था. इसका उद्देश्य राष्ट्र विरोधी तत्वों को भारत की प्रतिरक्षा के प्रतिकूल कार्य से रोकना था. इसे 1 अप्रैल, 1951 को समाप्त हो जाना था, किन्तु समय-समय पर इसका जीवनकाल बढ़ाया जाता रहा. अंततः यह 31 दिसंबर, 1971 को समाप्त हुआ.

2) आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971: 44वें सवैंधानिक संशोधन (1979) इसके प्रतिकूल था और इस कारण अप्रैल, 1979 में यह समाप्त हो गया.

3) विदेशी मुद्रा संरक्षण व तस्करी निरोध अधिनियम, 1974: पहले इसमें तस्करों के लिए नजरबंदी की अवधि 1 वर्ष थी, जिसे 13 जुलाई, 1984 ई० को एक अध्यादेश के द्वारा बढ़ाकर 2 वर्ष कर दिया गया है.

4) राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, 1980:

5) आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधियां निरोधक कानून (टाडा): निवारक निरोध व्यवस्था के अन्‍तर्गत अब तक जो कानून बने उन में यह सबसे अधिक प्रभावी और सर्वाधिक कठोर कानून था. 23 मई, 1995 को इसे समाप्त कर दिया गया.

6) पोटा: इसे 25 अक्टूबर, 2001 को लागू किया गया. ‘पोटा’ टाडा का ही एक रूप है. इसके अन्तर्गत कुल 23 आंतकवादी गुटों को प्रतिबंधित किया गया है. आंतकवादी और आंतकवादियों से संबंधित सूचना को छिपाने वालों को भी दंडित करने का प्रावधान किया गया है. पुलिस शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, किन्तु बिना आरोप-पत्र के तीन महीने से अधिक हिरासत में नहीं रख सकती. पोटा के तहत गिरफ्तार व्यक्ति हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है, लेकिन यह अपील भी गिरफ़्तारी के तीन महीने बाद ही हो सकती है, 21 सितम्बर, 2004 को इसे अध्यादेश के द्वारा समाप्त कर दिया गया दिया गया.

  1. शोषण के विरुद्ध अधिकार

अनुच्छेद 23: मानव के दुर्व्यापार और बलात श्रम का प्रतिषेध: इसके द्वारा किसी व्यक्ति की खरीद-बिक्री, बेगारी तथा इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया हुआ श्रम निषिद्ध ठहराया गया है, जिसका उल्लंघन विधि के अनुसार दंडनीय अपराध है.

नोट: जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है.

अनुच्छेद 24: बालकों के नियोजन का प्रतिषेध: 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है.

  1. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार-

अनुच्छेद 25: अंत:करण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता: कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है और उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है.

अनुच्छेद 26: धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता: व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संथाओं की स्थापना व पोषण करने, विधि-सम्मत सम्पत्ति के अर्जन, स्वामित्व व प्रशासन का अधिकार है.

अनुच्छेद 27: राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक संप्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गई है.

अनुच्छेद 28: राज्य विधि से पूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी. ऐसे शिक्षण संस्थान अपने विद्यार्थियों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने या किसी धर्मोपदेश को बलात सुनने हेतु बाध्य नहीं कर सकते.

  1. संस्कृति एवं शिक्षा संबंधित अधिकार:

अनुच्छेद 29: अल्पसंख्यक हितों का संरक्षण कोई अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है और केवल भाषा, जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर उसे किसी भी सरकारी शैक्षिक संस्था में प्रवेश से नहीं रोका जाएगा.

अनुच्छेद 30: शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार: कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्था चला सकता है और सरकार उसे अनुदान देने में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करेगी.

  1. संवैधानिक उपचारों का अधिकार:

‘संवैधानिक उपचारों का अधिकार’ को डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा है.
अनुच्छेद 32: इसके तहत मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया है. इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को पांच तरह के रिट निकालने की शक्ति प्रदान की गई है जो निम्न हैं:
(a) बंदी प्रत्यक्षीकरण
(b) परमादेश
(c) प्रतिषेध लेख
(d) उत्प्रेषण
(e) अधिकार पृच्छा लेख

(1) बंदी प्रत्यक्षीकरण: यह उस व्यति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया है. इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बंदी बनाए गए व्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अंदर उपस्थित करे जिससे न्यायालय बंदी बनाए जाने के कारणों पर विचार कर सके.
(2) परमादेश: परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता है, जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता है. इस प्रकार के आज्ञापत्र के आधार पर पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का आदेश जारी किया जाता है.
(3) प्रतिषेध लेख: यह आज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा निम्न न्यायालयों तथा अर्द्ध न्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहां कार्यवाही न करें क्यूंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है.
(4) उत्प्रेषण: इसके दवरा अधीनस्थ न्यायालयों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे अपने पास लंबित मुकदमों के न्याय निर्णयन के लिए उससे वरिष्ठ न्यायालय को भेजें.
(5) अधिकार पृच्छा लेख: जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसके रूप में कार्य करने का उससे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है न्यायालय अधिकार-पृच्छा के आदेश के द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस अधिकार से कार्य कर रहा है और जब तक वह इस बात का संतोषजनक उत्तर नहीं देता वह कार्य नहीं कर सकता है.

मौलिक अधिकार में संशोधन

  1. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1976) के निर्णय से पूर्व दिए गए निर्णय में यह निर्धारित किया गया था कि संविधान के किसी भी भाग में संशोधन किया जा सकता है, जिसमें अनुच्छेद 368 और मूल अधिकार को शामिल किया गया था.
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्यवाद (1967) के निर्णय में अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से मूल अधिकारों में संशोधन पर रोक लगा दी. यानी कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है.
  3. 24वें संविधान संशोधन (1971) द्वारा अनुच्छेद 13 और 368 में संशोधन किया गया तथा यह निर्धारित किया गया की अनुच्छेद 368 में दी गई प्रक्रिया द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है.
  4. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्यवाद के निर्णय में इस प्रकार के संशोधन को विधि मान्यता प्रदान की गई यानी कि गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के निर्णय को निरस्त कर दिया गया.
  5. 42वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 368 में खंड 4 और 5 जोड़े गए तथा यह व्यवस्था की गई कि इस प्रकार किए गए संशोधन को किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है.
  6. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के निर्णय के द्वारा यह निर्धारित किया गया कि संविधान के आधारभूत लक्षणों की रक्षा करने का अधिकार न्यायालय को है और न्यायालय इस आधार पर किसी भी संशोधन का पुनरावलोकन कर सकता है. इसके द्वार 42वें संविधान संशोधन द्वारा की गई व्यवस्था को भी समाप्त कर दिया गया।

मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, लेकिन 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संपत्ति का अधिकार को मौलिक अधिकार की सूची से हटाकर इसे संविधान के अनुच्छेद 300 (a) के अन्तगर्त क़ानूनी अधिकार के रूप में रखा गया है.

भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों से जुड़े तथ्‍य इस प्रकार हैं:

  1. इसे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है.
  2. इसका वर्णन संविधान के भाग-3 में (अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35) है.
  3. इसमें संशोधन हो सकता है और राष्ट्रीय आपात के दौरान (अनुच्छेद 352) जीवन एवं व्यकितिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छोड़कर अन्य मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है.
  4. मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, लेकिन 44वें संविधान संशोधन (1979 ई०) के द्वारा संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31 से अनुच्छेद 19f) को मौलिक अधिकार की सूची से हटाकर इसे संविधान के अनुच्छेद 300 (a) के अन्तगर्त क़ानूनी अधिकार के रूप में रखा गया है.

300 (a) के अन्तगर्त क़ानूनी अधिकार

भूमि अधिग्रहण क्या है?

भूमि अधिग्रहण से आशय (भूमि खरीद की) उस प्रक्रिया से है, जिसके तहत केंद्र या राज्य सरकार सार्वजनिक हित से प्रेरित होकर क्षेत्र के बुनियादी विकास, औद्योगीकरण या अन्य गतिविधियों के लिये नियमानुसार नागरिकों की निजी संपत्ति का अधिग्रहण करती हैं। इसके साथ ही इस प्रक्रिया में प्रभावित लोगों को उनके भूमि के मूल्य के साथ उनके पुनर्वास के लिये मुआवज़ा प्रदान किया जाता है।

भूमि अधिग्रहण कानून की आवश्यकता क्यों?

देश के विकास के लिये जहाँ औद्योगीकरण जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देना ज़रूरी है, वहीं सरकार के लिये यह भी सुनिश्चित करना अतिआवश्यक है कि विकास की इस प्रक्रिया में समाज के कमज़ोर वर्ग के हितों को क्षति न पहुँचे। भू-अधिग्रहण प्रक्रिया में सरकार एक मध्यस्थ की भूमिकायें निम्नलिखित कार्य करती है-

  • सरकार यह सुनिश्चित करती है कि परियोजना हेतु आवश्यक भूमि की व्यवस्था हो सके। यदि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र या निजी कंपनियों के लिये भूमि अधिग्रहण में कानूनों का उपयोग नहीं करती है तो प्रत्येक भू-मालिक अपनी भूमि के लिये मनमानी कीमत मांग सकता है या ज़मीन बेचने से मना भी कर सकता है जिससे परियोजना को पूरा करने में काफी समय लगेगा या परियोजना रद्द भी हो सकती है।
  • निर्धारित नियमों का पालन करते हुए सरकार भू-मालिकों को भूमि का उचित मूल्य प्रदान करने में अहम भूमिका निभाती है तथा परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास में भी सहायता करती है (भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013)। निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के मामले में सरकार के हस्तक्षेप से यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि कंपनी द्वारा ज़मीन बेचने के लिये भू-मालिकों के शोषण न हो।

भूमि अधिग्रहण के लिये कानूनी प्रावधान:

ब्रिटिश शासन के दौरान ऐसे अनेक प्रावधान बनाए गए जिनके माध्यम से ब्रिटिश सरकार आसानी से भू-मालिकों की ज़मीन बिना उनकी अनुमति के ले सकती थी।

भारत में कई अन्य महत्त्वपूर्ण कानूनों की तरह ही लंबे समय तक (भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013 लागू होने से पहले तक) भूमि अधिग्रहण के लिये ब्रिटिश शासन के दौरान बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 का अनुसरण किया गया।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894

इस अधिनियम के तहत कुछ सामान्य प्रक्रियाओं का पालन कर सरकार आसानी से किसी भी भूमि का अधिग्रहण कर सकती थी। भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 के अनुसार, भूमि अधिग्रहण की कुछ महत्त्वपूर्ण अनिवार्यताएँ निम्नलिखित हैं-

  • भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य (Public Purpose) के लिये किया गया हो।
  • भूमि अधिग्रहण के लिये भू-मालिक को उचित मुआवज़ा दिया गया हो।
  • अधिग्रहण के लिये अधिनियम में निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया गया हो।

भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया:

  • भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में राज्य अथवा केंद्र सरकार के निर्देश पर एक ‘भूमि अधिग्रहण अधिकारी’ (जिला अधिकारी या कलेक्टर) की नियुक्ति की जाती है।
  • भूमि अधिग्रहण अधिकारी के नेतृत्व में प्रस्तावित भूमि का निरीक्षण कर अधिनियम के अनुच्छेद 4 के तहत आधिकारिक गज़ट, स्थानीय समाचार-पत्रों व अन्य माध्यमों से इस संबंध में अधिसूचना जारी की जाती है।
  • अधिनियम के अनुच्छेद-5(a) के अनुसार, अधिसूचना जारी होने के पश्चात् कोई भी व्यक्ति प्रस्तावित भूमि पर मुआवज़े अथवा अन्य किसी विवाद के संबंध में आवेदन कर सकता है।
  • भूमि अधिग्रहण अधिकारी द्वारा मुआवज़े व अन्य विवादों से संबंधित सभी मामलों का निपटारा एक वर्ष के अंदर करना अनिवार्य है।
  • इस प्रक्रिया के अगले चरण के तहत सरकार की अनुमति के आधार पर अधिकारियों अथवा कंपनी द्वारा प्रस्तावित क्षेत्र पर बाड़ (Fencing) लगाने का कार्य किया जा सकता है।
  • प्रक्रिया के अंतिम चरण के रूप में एक बार पुनः सभी विवादों का निपटारा कर भूमि को परियोजना के लिये सौंप दिया जाता है।

इसके अतिरिक्त अधिनियम में अपवाद के रूप में कुछ ‘इमरजेंसी क्लॉज़ (Emergency Clause)’ को चिन्हित किया गया था। जिनका उपयोग कर सरकार पूरी तरह से अनिवार्य प्रक्रिया का पालन किये बिना भी भूमि अधिग्रहण कर सकती थी।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम-1894 की कमियाँ:

  • भूमि पर निर्भर लोगों के हितों की क्षति: इस अधिनियम में सिर्फ भू-मालिकों के लिये मुआवज़े की व्यवस्था की गई। संबंधित भूमि पर निर्भर श्रमिकों व अन्य सेवा प्रदाताओं के हितों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और न ही उनके पुनर्वास के लिये कोई प्रावधान किये गए। विधि आयोग ने वर्ष 1958 की रिपोर्ट में इस समस्या को रेखांकित किया था।
  • सार्वजनिक उद्देश्य (Public Purpose) की अस्पष्ट व्याख्या: अधिनियम में सार्वजनिक उद्देश्य की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई, जिसके कारण कई मामलों में इस कानून का दुरुपयोग किया गया।
  • बाज़ार मूल्य से कम मुआवज़ा: यद्यपि अधिनियम में भूमि के बाज़ार मूल्य के आधार पर मुआवज़ा दिये जाने का प्रावधान था परंतु भूमि का मूल्य निर्धारित करने की कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं की गई थी। इस अधिनियम का उपयोग करते हुए भू-स्वामियों को बाज़ार मूल्य से कम कीमत पर भूमि अधिकार छोड़ने पर विवश किया गया।
  • ‘इमरजेंसी क्लॉज़ (Emergency Clause)’ का दुरुपयोग: किसानों और अनेक सामाजिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा इस अधिनियम के विरोध का मुख्य कारण अधिनियम में शामिल ‘इमरजेंसी क्लॉज़ (Emergency Clause) का दुरुपयोग था। अनेक मौकों पर सरकारों ने इस व्यवस्था का उपयोग कर भू-मालिकों से ज़बरन उनकी भूमि का अधिकार छीन लिया।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम-2013:

  • इस अधिनियम को “भूमि अधिग्रहण, पुनरुद्धार, पुनर्वासन में उचित प्रतिकार तथा पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013” (Right to Fair Compensation and Transparency in Land Acquisition, Rehabilitation and Resettlement Act, 2013) नाम से भी जाना जाता है।
  • सार्वजनिक उद्देश्य (Public Purpose) की स्पष्ट व्याख्या: भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में सरकार के लिये सार्वजनिक उद्देश्य की स्पष्ट व्याख्या की गई, जिससे इस संदर्भ में किसी भी प्रकार के भ्रम की स्थिति को दूर कर कानून के दुरुपयोग को कम किया जा सके।
  • सहमति की अनिवार्यता: इस अधिनियम के माध्यम से भू-मालिकों के हितों की रक्षा के लिये यह प्रावधान किया गया कि भूमि अधिग्रहण में निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिये कम-से-कम 80% और सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public-Private Partnership- PPP) परियोजना में भूमि अधिग्रहण के लिये कम-से-कम 70% भू-मालिकों की सहमति को अनिवार्य कर दिया गया।
  • मुआवज़ा और पुनर्वास: अधिनियम में ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि के अधिग्रहण के लिये बाज़ार मूल्य का चार गुना तथा शहरी क्षेत्र में बाज़ार मूल्य से दोगुनी कीमत अदा करने की व्यवस्था की गई। साथ ही अधिनियम के अनुसार, यदि 1 वर्ष के अंदर लाभार्थियों को मुआवज़े की राशि नहीं प्रदान की जाती है तो अधिग्रहण की प्रक्रिया रद्द हो जाएगी (धारा 25)। इसके साथ ही भूमि अधिग्रहण से प्रभावित अन्य लोगों जैसे- कृषि मजदूर, व्यापारी आदि के पुनर्वास के लिये उपयुक्त मदद प्रदान करने की व्यवस्था की गई है (धारा 31)।
  • विवाद निवारण तंत्र: अधिनियम के अनुसार, भूमि अधिग्रहण से संबंधित विवादों के समाधान के लिये अधिनियम की धारा 15 के तहत कलेक्टर द्वारा सभी विवादों का निपटारा एक निर्धारित समय सीमा के अंदर किया जाएगा। भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना जारी होने के 60 दिनों के अंदर कोई भी व्यक्ति किसी आपत्ति अथवा विवाद के संदर्भ में संबंधित कलेक्टर को लिखित शिकायत दे सकता है।
  • भूमि अधिग्रहण की सीमा: भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बहु-फसलीय कृषि भूमि के अधिग्रहण को प्रोत्साहित नहीं करता है। इस अधिनियम के अनुसार,बहु-फसलीय कृषि भूमि का अधिग्रहण केवल विशेष परिस्थितियों में और एक सीमा तक ही किया जा सकता है। (धारा 10)
  • आपातकालीन परिस्थितियों में: अधिनियम में आपात की परिस्थितियों (जैसे-राष्ट्रीय सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा आदि) में सरकार को भूमि अधिग्रहण करने के लिये विशेष अधिकार प्रदान किये गए हैं, जिसके अनुसार आपात की स्थिति में सरकार संसद की मंज़ूरी से आवश्यकतानुसार भूमि अधिग्रहण कर सकती है। (धारा 40)
  • भूमि उपयोग की समय-सीमा: भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में भू-मालिकों के प्रति सरकार के उत्तरदायित्व को निर्धारित करने और अधिनियम के दुरुपयोग को रोकने के लिये भूमि के उपयोग के संबंध में समय-सीमा का निर्धारण किया गया है। अधिनियम के अनुसार, यदि भूमि के अधिग्रहण के बाद 5 वर्षों के अंदर सरकार या संबंधित कंपनी द्वारा उसका उपयोग नहीं किया जाता है। तो उसका अधिकार भू-मालिक को पुनः वापस कर दिया जाएगा। इसके साथ ही यदि पुराने अधिनियम के अनुसार, अधिगृहीत भूमि पर 5 वर्षों तक कार्य नहीं शुरू होता है, तो भूमि के पुनः अधिग्रहण के लिये नए अधिनियम के अनुसार मुआवज़ा देना होगा। (भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013, भाग-4, धारा-24)

चुनौतियाँ :

आज भी भारतीय कामगारों में एक बड़ी संख्या उन अकुशल लोगों (मज़दूरों) की है जो असंगठित क्षेत्र में शामिल हैं और कृषि, कुटीर उद्योग आदि से अपना जीवन-यापन करते हैं। भूमि-अधिग्रहण से ऐसे लोगों को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-

  • भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया बहुत ही जटिल एवं लंबी है, ऐसे में इस प्रक्रिया के पूर्ण होने और प्रभावित लोगों को मुआवजा प्राप्त करने तक उन्हें अपने जीवन-यापन के लिये अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
  • भूमि से संबंधित लोग अधिकांशतः कम पढ़े-लिखे या किसी अन्य कारोबार से परिचित नहीं होते हैं अतः मुआवज़ा प्राप्त होने के बाद भी उनके लिये पुनः नया उद्यम शुरू करना एक चुनौती होता है।
  • भूमि अधिग्रहण के अधिकांश मामलों में भू-मालिक को ही मुआवज़ा प्रदान किया जाता है परंतु भूमि पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर अन्य लोग जैसे- मज़दूर, कलाकार,स्थानीय व्यापारी आदि को उपयुक्त सहायता नहीं मिल पाती है।
  • किसी क्षेत्र के औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप क्षेत्र में बड़े व्यापारियों के आगमन से स्थानीय व्यापारियों के लिये प्रतिस्पर्द्धा बढ़ जाती है।

उद्योगों के लिये चुनौतियाँ:

विशेषज्ञों के अनुसार, भूमि अधिग्रहण के लिये वर्ष 1894 का अधिनियम जहाँ सरकार और निजी संस्थाओं को अधिक शक्ति प्रदान करता था, वहीं भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के लागू होने से उद्योगों के लिये भूमि का अधिग्रहण करना बहुत ही जटिल हो गया है और साथ ही भूमि का मूल्य बढ़ने से इसका प्रत्यक्ष प्रभाव बाजार और औद्योगिक इकाइयों पर देखा गया है। विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2019 में जारी ‘ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स’ (Ease of Doing Buisness Index) में भारत 190 देशों में 63वें स्थान पर रहा।

निष्कर्ष: भूमि अधिग्रहण मामले में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला किसानों और भूमि पर निर्भर अन्य लोगों के लिये एक बड़ी जीत है। न्यायालय ने अपने फैसले के माध्यम से न सिर्फ न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को मजबूत किया है बल्कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधनों को लेकर हालिया गतिविधियों के संदर्भ में विधायिका को भी एक महत्त्वपूर्ण संदेश दिया है। अतः सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ध्यान में रखते हुए भविष्य में ऐसी नीतियों का निर्माण करना चाहिए जिससे आर्थिक विकास और कृषि के बीच के संतुलन को बनाया रखा जा सके।

आगे की राह:

भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया देश की प्राकृतिक संपदा और औद्योगिक विकास से बीच एक महत्त्वपूर्ण एवं संवेदनशील विषय है। अतः भूमि अधिग्रहण में प्रकृति, भूमि पर निर्भर लोगों और औद्योगिक विकास के बीच संतुलन बनाए रखना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। भूमि अधिग्रहण में होने वाली समस्याओं से निपटने के लिये निम्नलिखित प्रयास किये जा सकते हैं-

  • भूमि अधिग्रहण के पश्चात् किसान अथवा भू-मालिक के सफल पुनर्वास के लिये भूमि से जुड़े आर्थिक और भावनात्मक पक्ष को ध्यान में रखकर उचित मुआवज़ा सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
  • भूमि अधिनियम की प्रक्रिया में पारदर्शिता और उचित कानूनी प्रक्रिया के पालन को सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
  • भूमि अधिग्रहण के दौरान भूमि पर निर्भर अन्य लोगों और क्षेत्र के विकास पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन कर इस संदर्भ में आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिये।
  • भूमि के अधिग्रहण में भू-मालिकों के हितों के साथ-साथ औद्योगिक वर्ग के हितों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है, जिससे इस क्षेत्र में स्थानीय तथा विदेशी निवेश को बढ़ाया जा सके।